कार्यकर्ताओं की उपेक्षा भारी पड़ेगी पार्टियों को*

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*कार्यकर्ताओं की उपेक्षा भारी पड़ेगी पार्टियों को*
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*डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’*
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*ऊँचे मकानों से घर मेरा घिर गया*
*कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए*

जावेद अख्तर साहब की इन पंक्तियों में दर्द तो पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं का ही जाहिर हो रहा है।
पार्टी चाहे कांग्रेस हो चाहे बीजेपी, आम आदमी हो चाहे खास…. दर्द की कसक तो एक जैसी ही है।
जिन लोगों के त्याग और बलिदान से गांधी-नेहरू की कांग्रेस पोषित हुई हो, चाहे प.दीन दयाल जी का एकात्म मानववाद या अटल जी की निष्ठा….सबके सब आज खूटी पर टंगे हुए मिले ।
न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।
सभी राजनैतिक दलों में आज उपेक्षित और ठगा हुआ-सा कोई है तो वह है *’निष्ठावान कार्यकर्ता’* ।
उपेक्षा और अपेक्षा के बीच झूलती पार्टियों ने छूरी कहीं चलाई है तो वह सरासर कार्यकर्ताओं के गले पर ।
जिन लोगों ने दरी-चादर बिछा कर पार्टीयों की आम सभाएँ करवाई, मोहल्ले-मोहल्ले कार्यकर्ता ढूंढ कर जोड़े, उन्हे विचारधारा से प्रभावित किया, काम करवाया, सरकार बनाने में सहयोगी बनाया, चुनाव पर्व के दौरान तो बंधुआ मजदूर की तरह कार्य करवाया और तब जाकर वो _’निष्ठावान कार्यकर्ता’_ बन पाया, फिर जाकर अपने सर्वेयरों, चाणक्यों, चाटुकारों के कहने में आकर उसी निष्ठावान को दरकिनार कर दिया।
अजीब पसोपेश है राजनीति के दावानल में, जहाँ बनाने वाला सदा ही आहत हो जाते है, और तलवे चाटने वाले नेता बनकर राज करने पहुँच जाते है।
जब संगठन में पदाधिकारी बनाना हो तब भी स्थापित आका अपने छर्रे-कटोरी और चम्मचों को दायित्व दिलवाकर फूले नहीं समाते है और यही छर्रे-कटोरी अपने आका के जन्मदिन पर बैनर होर्डिंग लगा कर, मंच सजा कर निष्ठा का ढोंग करते है और ठगा हुआ तब भी अगर कोई रहता है तो केवल _निष्ठावान कार्यकर्ता_।
जब चुनाव के दौरान टिकट देने की बात आती है तब भी आका पेराशूट से उम्मीदवार भेज कर किसी के साथ छल करता है तो केवल निष्ठावान कार्यकर्ता के साथ…

*रोना ही लिखा है भाग्य में तो फिर क्यों बनाएँ नेता?*
यदि हर नेता और आका यही करने पर आमदा है तो फिर पार्टी की फजीहत होने पर पार्टी प्रमुख या सर्वेसर्वा क्यों चुप्पी साध लेते है और कार्यकर्ताओं पर दोषारोपण क्यों करते है?
चुनाव जीतना लक्ष्य तो है पर विचारधारा का पोषण भी तो आवश्यक तत्व है । विकासोन्मुखी बातों के साथ-साथ किसी विचारधारा को रोपना भी उतना ही आवश्यक है जितना शरीर में भोजन के साथ शक्कर का होना।
‘राज’ की नीति का अहम हिस्सा हो गया है *’चरणचूम व्यवस्था और चरणदास लोग’*
आखिर इस बार के मध्यप्रदेश चुनावों के दौरान भी यही माजरा साफतौर पर देखने को मिला, जहाँ हर पार्टी में ठगा हुआ, उपेक्षित सा, और बेचारा कोई बना है तो वह है _’निष्ठावान कार्यकर्ता’_
आखिर पार्टियों को पुनर्विचार करना चाहिए वर्ना आने वाले समय में राजनीति से युवा दूर होंगे, सत्यनिष्ठ लोग साथ नहीं होंगे, और समर्पित, निष्ठावान कार्यकर्ता ढूंढने से नहीं मिलेंगे और तब पार्टी के पास बचेंगे तो केवल और केवल चापलूस, चाटुकार और चमचों की फौज, जो न चुनाव जिताने के काबिल होगी न ही विचारधारा रोपने के।
तब समर में शेष रह जाएगी पार्टी की मृत देह, जिसमें से विचारधारा रुपी *’आत्मा’* नित्यधाम साकेत की ओर जा चुकी होगी……

मलाल तो तब भी रहेगा ही, और आज भी है… बस समय पर जागने की बात है…

*डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’*
प्रधान सम्पादक
खबर हलचल न्यूज, इंदौर

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