दुनिया कहती है टीट फार टेट लेकिन महावीर कहते हैं फारगेट देट…श्री रत्नसुन्दर सूरीश्वरजी महाराज। 

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दुनिया कहती है टीट फार टेट लेकिन महावीर कहते हैं फारगेट देट
बैर एवं कटु स्मृति की गाँठ नष्ट कर देती है मन के प्रेम, प्रसन्नता, शांति को- श्री रत्नसुंदर सुरि
देवास। क्रोध, बैर, विभाजन या विरोध की मन में कटु स्मृति लेकर बैठे रहना ही मन की गाँठ है। शिक्षक ने छात्रों से कहा एक धागे में पाँच मिनट में कौन सबसे ज्यादा गाँठ लगा सकता है, और इससे दुगने समय दस मिनट में लगी हुई गाँठ को जो अधिकतम खोल देगा उसे पुरस्कार मिलेगा। लेकिन परिणाम गाँठ लगा तो दी, खोल कोई नहीं पाया। दुर्योधन के मन में कृष्ण के प्रति गाँठ थी, लेकिन राम ने मन में कैकई के प्रति कभी गाँठ नहीं रखी। इसी के परिणाम स्वरूप 14 वर्ष वनवास के बाद राम ने कैकई के चरणों में झुकते हुए कहा माँ मैं आपका उपकार जन्म जन्मांतर तक नहीं भूल पाऊंगा क्योंकि आपके ही कारण मुझे पिता का स्नेह, भाई भरत की अनासक्ति, हनुमान का पराक्रम, सीता की पवित्रता, लक्षमण की भ्रात भक्ति, विभीषण की मित्रता, रावण से दुश्मनी एवं रावण पर जीत की मेरी क्षमता का अनुमान लगा है। आप मेरे वनवास का वरदान नहीं मांगती तो इन विशेषताओं को मैं कभी जान नहीं पाता। मैं भी बड़ी पीड़ा से यह कहना चाहता हूँ कि आपने भी अपने मन में कई लोगों के प्रति कटु स्मृति, क्रोध एवं बैर की गाँठ लगा रखी है। गन्ने में जहां गाँठ होती है वहां रस नहीं होता, जहां रस होता है वहाँ गाँठ नहीं होती। उसी प्रकार हमारी परिभाषा में जिसके पास बैर की गाँठ है वह भिखारी है। जिसके पास गाँठ नहीं वह सम्राट । भिखारी या सम्राट धन से नहीं भावपूर्ण मन से होता है। हम चाहे धर्म, जप, तप, दान, कर लें लेकिन किसी के प्रति बैर भाव है तो हमारी धर्मप्रवृत्ति पूर्ण फलदायी नहीं बन सकती। गाँठ युक्त रूमाल पैसा संभालने में असक्षम हैं, जबकि बिना गाँठ के रूमाल में धन सहेजा जा सकता है। इसी प्रकार गाँठ युक्त व्यक्ति को प्रभु या गुरू कुछ देना भी चाहे तो वह प्राप्त नहीं कर सकता। प्रभु एवं गुरू कृपा प्राप्ति हेतु गाँठ मुक्त जीवन अति आवश्यक है। गाँठ युक्त जीवन के कारण हमने मन की प्रेम, प्रसन्नता एवं शांति सब खो दिया है।  आखिर हमें मिला क्या? यह विचारणीय प्रश्न है। हम सम्राट या भिखारी विषय पर विशाल धर्मसभा को उपदेशित करते हुए प्रवचनमाला के पाँचवे दिवस पूज्य जैनाचार्य श्री रत्नसुंदर सुरीश्वर जी म.सा. ने यह बात कही। किसी ने हमारे साथ बुरा किया और हमने बैर की गाँठ बांध ली। लेकिन जीवन की व्यवस्था राइट या राँग नहीं गुड या बेड से चलती है। हो सकता है क्रोध करने वाला राईट हो लेकिन क्रोध के कारण गुड कदापि नहीं हो सकता। हमें यही सोचना चाहिये जिसके पास जो होगा वही तो वह देगा। संपत्ति का दान न दो तो भी चलेगा लेकिन क्षमा का दान जरूर देना। हम इतना तो अवश्य ही कर सकते है कि हमारे नजदीकी परिजन, माता पिता, भाई बहन, पति पत्नी, पुत्र पुत्रियों के प्रति कभी कटुस्मृति एवं बैर की गाँठ नहीं रखेंगे। नाखून काटने का विरोध नहीं लेकिन अंगुठा कट जाए यह सर्वथा गलत है। वैसे ही अहंकार को संभालने के लिए संबंधों की बलि देना घातक है। बैर की गाँठ रखने से तीन चीजें बिगड़ जाती है, वर्तमान में शांति, मृत्यु के समय समाधि एवं परलोक में सद्गति। किसी भी वस्तु को छोड दे वही उसका मालिक है, यदि नहीं छोड सके तो गुलाम। हमें भी अपने मन का मालिक बनकर बैर की गाँठ को छोड देना ही श्रेयस्कर है। यदि हम कटु स्मृति की गाँठ को मिटाकर भिखारी से सम्राट बनने की तैयारी में है तो इन पाँच प्रकार की बुद्धि से पार पाकर जीवन में प्रेम, प्रसन्नता और शांति को स्थापित कर परलोक में सद्गति को रिजर्व कर सकते हैं। ये हैं कुत्सित बुद्धि, कुपित बुद्धि, कुंठित बुद्धि, कर्तव्य बुद्धि, कल्याण बुद्धि । कुत्सित बुद्धि हर समय बिगड़ी और गंदी ही रहती है। कुपित बुद्धि अशुभ निमित्त प्राप्त कर कुछ समय के लिए बिगड़ जाती है। कुंठित बुद्धि आधी आधी है। एक मन कहता है क्षमा मांग ले, दूसरा कहता है क्षमा मांग लेंगे तो छोटे हो जाएंगे। फिर भी क्षमा का प्रयास जरूरी है। कर्तव्य बुद्धि वाला व्यक्ति अपने संबंधितों की गलतियों को नजरअंदाज कर उसे निभा लेता है, क्योंकि वह मानता है यह उसका कर्तव्य है। कर्तव्य से ही परिवार, समाज, राष्ट्र का व्यवहार सुनिश्चित बनता है। कल्याण बुद्धि वाला व्यक्ति महासम्राट एवं सद्पुरूष होता है क्योंकि किसी के प्रति अपने मन में गाँठ रखता ही नहीं वह सिर्फ सभी का आत्मकल्याण चाहता है। गाँठ बांधने की उसकी आत्मा अनुमति ही नहीं देती है क्योंंकि वह आत्मकल्याण के मार्ग में अवरोधक है। दुनिया कहती है टीट फार टेट लेकिन प्रभु महावीर कहते है फारगेट देट। तालाब गंदगी समेटकर रखता, नदी प्रवाहित कर देती है और अंतत: सागर बन जाती है। हम पर भी भगवान ने पूर्ण विश्वास करके संसार में भेजा है हमें तालाब न बनकर नदी जैसा निर्मल बनते हुए सागर समान परमात्मा में विलिन होकर परमात्मा बन जाना ही मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य है।
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