स्वार्थ से जुड़े रिश्तों का जीवन अधिक नही….अखिलेश्वरीजी

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*स्वार्थ से जुड़े रिश्तों का जीवन अधिक नही*
*मित्र चित्र नही चरित्र देखकर बनाए*

#” *अमन व सुखशांति की हो स्थापना “संदेश के साथ कथा विराम*

*बड़वानी से कपिलेश शर्मा* -ज्ञान गंगा समिति द्वारा कुशवाहा धर्मशाला में आयोजित श्रीमद्भागवत कथा के अंतिम दिन व्यासपीठ से साध्वीश्री अखिलेश्वरी जी ने 11 वे स्कन्ध से सुदामा चरित्र का मार्मिक प्रसंग को विस्तार देते हुए बताया कि मित्रता मित्र के धन,वेशभूषा या स्थिति को देखकर नही की जाती वरन उसके गुणों को देख कर की जाती है।

दीदी मां ने बताया कि वर्षो से श्रीकृष्ण व सुदामा की मित्रता आदर्श मित्रता का प्रतीक है।पर आज मित्रता केवल मात्र स्वार्थ पर आकर टिक गई है, मित्रता का संबंध बड़ा पवित्र व विश्वास का होता है। स्वार्थ से भरे रिश्ते बहुत से बन तो जाते है पर आशा और स्वार्थ जब पूरा नही होते तो वो रिश्ते टिकते नही ,क्योंकि वो सम्बंध केवल निज हित को पूरा करनेके लिए बने थे। साध्वीजी ने बताया कि मित्र के सद्गुणों को अपनाइए या ऐसे ही मित्र बनाइए जो गुणी हो।और उसकी हर परिस्थिति में उसका साथ निभाइए ।जैसे श्री कृष्ण जी द्वारकाधीश बनने के बाद भी गरीब सुदामा को नही भूले और किंतने ही वर्षो के बाद मिलने पर भी उनसे साधारण मित्र की तरह ही मिलकर उन्हें पूर्ण सम्मान दिया।दीदी मां ने सभी से निवेदन किया कि आपकी कुसंगति के कारण आपके माता पिता के साथ पूरा परिवार इसका कुफ़ल भोगता है । मित्र का धन आपको धनवान नही बना सकता पर सद्गुणी मित्र आपके चरित्र को अवश्य उच्च बना सकता है अतः अच्छे मित्र बनाइए। और उसके गुणों का अनुसरण कीजिए ।श्रीकृष्ण ने इस संसार को सच्ची मित्रता का पाठ पढ़ाया है। सुदामा की मित्रता भगवान के साथ नि:स्वार्थ थी उन्होने कभी उनसे सुख साधन या आर्थिक लाभ प्राप्त करने की इच्छा नहीं की। इसीलिए मित्रता अपने आप में एक परिपूर्ण रिश्ता है।
कथा में श्रीकृष्ण सुदामा प्रसंग की सजीव सुंदर झाँकी मंचन से सभी भक्तगण बहुत भावुक होकर भाव विभोर गए ।

#कथा विराम में प्रवेश कराते हुए साध्वी जी ने कहा कि स्वंय को भगवान बनाने के बजाय प्रभु का दास बनने की कोशिश करें क्यों कि निर्मल मन से किए भक्ति भाव को देख कर जब प्रभु के मन में भक्त के लिए प्रेम जागता है तो वे सब कुछ छोड कर अपने भक्तरूपी संतान के पास दौडे चले आते हैं। गृहस्थ जीवन में मनुष्य तनाव,चिंता, दुःखों में जीता है जब कि संत यानी भक्त सद्भाव में जीता है। यदि संत या भक्त नही बन सकते तो संतोषी बने ,संतोश सबसे बडा धन है। अन्त में दीदी मां ने भागवत गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश के माध्यम से विश्व को शिक्षा दी कि बिना फल की आशा करते हुए निस्वार्थ मन से कर्मशील होकर कार्य को सफल बनाए।अपने चरित्र का अच्छा निर्माण करें उन्होंने कथा के माध्यम से संदेश दिया कि कथा केवल सुनिए नही इससे मिले गुणों को शिक्षा व मार्ग दर्शन को धारण भी करे।चारों फैली बुराइयों का त्याग करके वसुधैव कुटुम्बकम की भावना स्थापित करें, गृहस्थ जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए प्रेम और विश्वास, समर्पण,त्याग की भावना रखे तभी हमारा राष्ट्र पुनः वास्तविक अर्थ में शांति दूत या पुण्य पावन धरा कहलाएगा।
कथा पश्चात कथा आयोजक श्री हीरालाल जी बैरडिया के साथ समस्त समिति व भक्तगणों द्वारा भगवान भागवतजी की आरती उतारी गई एवं कथा विराम पश्चात समस्त भक्तो के लिए भंडारे का आयोजन भी किया गया।

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