भारत के प्रसिद्ध ग्यारह संत और उनके चमत्कार

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बचपन से आप सुनते आएँ होंगे कि जब-जब धरती पर अत्याचार बढ़ा, तब-तब भगवान ने किसी ना किसी रूप में जन्म लिया और बुराइयों का अंत किया।
ठीक इसी तरह कई संत महात्माओं ने भी समय-समय पर जन्म लिया और अपने चमत्कार से समाज को सही मार्ग दिखाया है। फिर चाहे वह संत एकनाथ रहे हों, या फिर संत तुकाराम। तो आइये चर्चा करते हैं कुछ ऐसे ही संतों की, जिन्होंने अपने चमत्कारों और उससे ज्यादा अपने ज्ञान और परमारथ से लोगों का कल्याण किया।

रामकृष्ण परमहंस

भारत के महान संत थे। राम कृष्ण परमहंस ने हमेशा से सभी धर्मों कि एकता पर जोर दिया था. बचपन से ही उन्हें भगवान के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। उन्हें विश्वास था कि भगवान उन्हें एक दिन जरूर दर्शन देंगे। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उन्होंने कठिन साधना और भक्ति का जीवन बिताया था। जिसके फलस्वररूप माता काली ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिया था।

कहा जाता है कि- उनकी ईश्वर भक्ति से उनके विरोधी हमेशा जलते थे। उन्हें नीचा दिखाने कि हमेशा सोचते थे. एक बार कुछ विरोधियों ने 10 -15 वेश्याओं के साथ रामकृष्ण को एक कमरे में बंद कर दिया था।

रामकृष्ण उन सभी को मां आनंदमयी की जय कहकर समाधि लगाकर बैठ गए। चमत्कार ऐसे हुआ कि वे सभी वेश्याएं भक्ति भाव से प्रेरित होकर अपने इस कार्य से बहुत शर्मशार हो गई और राम कृष्ण से माफी मांगी।
इसके अतिरिक्त, रामकृष्ण परमहंस की कृपा से माँ काली और स्वामी विवेकानंद का साक्षात्कार होना समूचे विश्व को पता ही है।

संत एकनाथ

महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संतो में से एक माने जाते हैं। महाराष्ट्र में इनके भक्तों की संख्या बहुत अधिक है। भक्तों में नामदेव के बाद एकनाथ का ही नाम लिया जाता है। ब्राह्मण जाति के होने के बावजूद इन्होंने जाति प्रथा के खिलाफ अपनी आवाज तेज की। समाज के लिए उनकी सक्रियता ने उन्हें उस वक्त के सन्यासियों का आदर्श बना दिया था। दूर-दूर से लोग उनसे लोग मिलने आया करते थे। उनसे जुड़े एक चमत्कार की बात करें तो…
एक बार एकनाथ जी को मानने वाले एक सन्यासी को रास्ते में एक मरा हुआ गथा मिलता है, जिसे देखकर वह उसे दण्डवत् प्रणाम करते हैं और कहते हैं ‘तू परमात्मा है’। उनके इतना कहने से वह गधा जीवित हो जाता है।
इस घटना की खबर जब लोगों में फैलती है, तो वह उस संत को चमत्कारी समझकर परेशान करने लगते हैं। ऐसे में सन्यासी संत एक नाथ जी के पास पहुंचता है और सारी बात बताता है। इस पर संत एकनाथ उत्तर देते हुए कहते हैं, जब आप परमात्मा में लीन हो जाते है तब ऐसा ही कुछ होता है। माना जाता है कि इस चमत्कार के पीछे संत एकनाथ ही थे।

संत तुकाराम

भगवान की भक्ति में लीन रहने वाले संत तुकाराम का जीवन कठिनाइयों भरा रहा। माना जाता है कि उच्च वर्ग के लोगों ने हमेशा उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश की। एक बार एक ब्राहाण ने उनको उनकी सभी पोथियों को नदी में बहाने के लिए कहा तो उन्होंंने बिना सोचे सारी पोथियां नदी में डाल दी थी. बाद में उन्हें अपनी इस करनी पर पश्चाताप हुआ तो वह विट्ठल मंदिर के पास जाकर रोने लगे।

वह लगातार तेरह दिन बिना कुछ खाये पिये वहीं पड़े रहे। उनके इस तप को देखकर चौदहवें दिन भगवान को खुद प्रकट होना पड़ा। भगवान ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए उनकी पोथियां उन्हें सौपी। आगे चलकर यही तुकाराम संत तुकाराम से प्रसिद्ध हुए और समाज के कल्याण में लग गये।

संत ज्ञानेश्वर

संत की गिनती महाराष्ट्र के उन धार्मिक संतो में होती हैं, जिन्होंने समस्त मानव जाति को ईर्ष्या द्वेष और प्रतिरोध से दूर रहने का शिक्षा दी थी। संत ज्ञानेश्वर ने 15 वर्ष की छोटी सी आयु में ही गीता की मराठी में ज्ञानेश्वरी नामक भाष्य की रचना कर दी थी। इन्होंने पूरे महाराष्ट्र में घूम घूम कर लोगों को भक्ति का ज्ञान दिया था।

उनके बारे में कहा जाता है कि उनका इस धरती पर जन्म लेना किसी चमत्कार से कम नहीं था। उनके पिता उनकी मां रुक्मिणी को छोड़कर सन्यासी बन गए थे। ऐसे में एक दिन रामानन्द नाम के सन्त उनके आलंदी गांव आये और उन्होंने रुक्मिणी को पुत्रवती भव का आशीर्वाद दे दिया।

जिसके बाद ही इनके पिता ने गुरु के कहने पर गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया और संत ज्ञानेश्वर का जन्म हुआ। संत नामदेव एक प्रसिद्ध संत थे। उन्होंने मराठी के साथ हिन्दी में भी अनेक रचनाएं की। उन्होंने लोगों के बीच ईश्वर भक्ति का ज्ञान बांटा। उनका एक किस्सा बहुत चर्चित है।

एक बार वह संत ज्ञानेश्वर के साथ तीर्थयात्रा पर नागनाथ पहुंचे थे, जहां उन्होंने भजन-कीर्तन का मन बनाया तो उनके विरोधियों ने उन्हेंं कीर्तन करने से रोक दिया। विरोधियों ने नामदेव से कहा अगर तुम्हें भजन-कीर्तन करना है तो मंदिर के पीछे जाकर करो।
इस पर नामदेव मंदिर के पीछे चले गये. माना जाता है कि उनके कीर्तनों की आवाज सुनकर भगवान शिव शंकर ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन देने आ गये थे। इसके बाद से नामदेव के चमत्कारी संत के रुप में ख्याति मिली।

समर्थ स्वामी

जी का जन्म गोदातट के निकट जालना जिले के ग्राम जांब में हुआ था। अल्पायु में ही उनके पिता गुजर गए और तब से उनके दिमाग में वैऱाग्य घूमने लगा था। हालांकि, मां की जिद के कारण उन्हें शादी के लिए तैयार होना पड़ा था। पर, मौके पर वह मंडप तक नहीं पहुंचे और वैराग्य ले लिया।
समर्थ स्वामी के बारे में कहा जाता है कि एक शव यात्रा के दौरान जब एक विधवा रोती-रोती उनके चरणो में गिर गई थी, तो उन्होंंने ध्यान मग्न होने के कारण उसे पुत्रवती भव का आशीर्वाद दे दिया था। इतना सुनकर विधवा और फूट-फूट कर रोने लगी।
रोते हुए वह बोली- मैं विधवा हो गई हूं और मेरे पति की अर्थी जा रही है। स्वामी इस पर कुछ नहीं बोले और कुछ देर बाद जैसे ही उसके पति की लाश को आगे लाया गया, उसमें जान आ गई। यह देख सबकी आंखे खुली की खुली रह गई। सभी इसे समर्थ स्वामी का चमत्कार बता रहे थे।

देवरहा बाबा

उत्तर भारत के एक प्रसिद्ध संत थे। कहा जाता है कि हिमालय में कई वर्षों तक वे अज्ञात रूप में रहकर साधना किया करते थे। हिमालय से आने के बाद वे उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में सरयू नदी के किनारे एक मचान पर अपना डेरा डाल कर धर्म-कर्म करने लगे, जिस कारण उनका नाम देवरहा बाबा पड़ गया। उनका जन्म अज्ञात माना जाता है। कहा जाता है कि-

एक बार महावीर प्रसाद ‘बाबा’ के दर्शन करके वापस लौट रहे थे, तभी उनके साले के बेटे को सांप ने डंस लिया। चूंकि सांप जहरीला था, इसलिए देखते ही देखते विष पूरे शरीर में फ़ैल गया।
किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें, इसलिए वह उसे उठाकर देवरहा बाबा के पास ले आये। बाबा ने बालक को कांटने वाले सांप को पुकारते हुए कहा तुमने क्यों काटा इसको, तो सांप ने उत्तर देते हुए कहा इसने मेरे शरीर पर पैर रखा था। बाबा ने इस पर उसे तुरंत ही कड़े स्वर में आदेश दिया कि विष खींच ले और आश्चर्यजनक रूप से सांप ने विष खींच लिया। बाबा के इस चमत्कार की चर्चा चारों ओर फैल गई।

संत जलाराम

बापा के नाम से प्रसिद्ध जलाराम गुजरात के प्रसिद्ध संतो में से एक थे। उनका जन्म गुजरात के राजकोट जिले के वीरपुर गांव में हुआ था। जलाराम की मां एक धार्मिक महिला थीं, जो भगवान की भक्ति के साथ साथ साधु संतो का बड़ा आदर करती थी। उनके इस कार्य से प्रसन्न संत रघुदास जी उन्हें आशीर्वाद दिया कि उनका दूसरा पुत्र ईश्वर भक्ति और सेवा के लिए ही जाना जायेगा। आगे चलकर जलाराम बापा गुजरात के बहुत प्रसिद्ध संत हुए।
एक दिन बापा के भक्त काया रैयानी के पुत्र की मृत्यु हो गई। पूरा परिवार शोक में डूबा था। इस बीच बापा भी वहां पहुंच गये, उनको देखकर काया रैयानी उनके पैरों में गिर गया और रोने लगा। बापा ने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा तुम शांत हो जाओ, तुम्हारे बेटे को कुछ नहीं हुआ है।
उन्होंने कहा चेहरे पर से कपड़ा हटा दो। जैसे ही कपड़ा हटाया गया बापा ने कहा बेटा तुम गुमसुम सोये हुए हो, जरा आंख खोल कर मेरी ओर देखो। इसके बाद चमत्कार हो गया। क्षण भर में मृत पड़ा लड़का आंख मलते हुए उठ कर इस तरह बैठ गया, मानो गहरी नींद से जागा हो।

गुरु नानक देव

सिक्खों के आदि गुरु थे। इनके अनुयायी इन्हें गुरुनानक, बाबा नानक और नानक शाह के नामों से बुलाते हैं. कहा जाता है कि बचपन से ही वे विचित्र थे। नेत्र बंद करके आत्म चिंतन में मग्न हो जाते थे। उनके इस हाव भाव को देखकर उनके पिता बड़े चिंतित रहते थे। आगे चलकर गुरु नानक देव बहुत प्रसिद्ध संत हुए।
एक बार गुरु नानक देव जी मक्का गए थे। काफी थक जाने के बाद वह मक्का में मुस्लिमों का प्रसिद्ध पूज्य स्थान काबा में रुक गए। रात को सोते समय उनका पैर काबा के तरफ था।
यह देख वहां का एक मौलवी गुरु नानक के ऊपर गुस्सा हो गया. उसने उनके पैर को घसीट कर दूसरी तरफ कर दिये। इसके बाद जो हुआ वह हैरान कर देने वाला था। हुआ यह था कि अब जिस तरफ गुरु नानक के पैर होते, काबा उसी तरफ नजर आने लगता। इसे चमत्कार माना गया और लोग गुरु नानक जी के चरणों पर गिर पड़े।

रामदेव

इनका जन्म पश्चिमी राजस्थान के पोखरण नाम के प्रसिद्ध नगर के पास रुणिचा नामक स्थान में हुआ था। इन्होंने समाज में फैले अत्याचार भेदभाव और छुआ छूत का विरोध किया था। बाबा राम देव को हिन्दू मुस्लिम एकता का भी प्रतीक माना जाता है। आज राजस्थान में इन्हें लोग भगवान से कम नहीं मानते हैं। इनसे जुड़ा हुआ एक किस्सा कुछ ऐसा है।

मेवाड़ के एक गांव में एक महाजन रहता था। उसकी कोई संतान नहीं थी। वह राम देव की पूजा करने लगा और उसने मन्नत मांगी कि पुत्र होने पर मैं मंदिर बनवाऊंगा। कुछ दिन के बाद उसको पुत्र की प्राप्ति हुई।
जब वह बाबा के दर्शन करने जाने लगा तो रास्ते में उसे लुटेरे मिले और उसका सब कुछ लूट लिया। यहां तक कि सेठ की गर्दन भी काट दी। घटना की जानकारी पाकर सेठानी रोते हुए रामदेव को पुकारने लगी, इतने में वहां रामदेव जी प्रकट हो गए और उस महाजन का सर जोड़ दिए। उनका चमत्कार देख कर दोनों उनके चरणों में गिर पड़े।

संत रैदास

इनका जन्म एक चर्मकार परिवार में हुआ था। बचपन से ही रैदास का मन ईश्वर की भक्ति को ओर हो गया था। उनका जीवन बड़ा ही संघर्षो से बीता था, पर उन्होंने ईश्वर की भक्ति को कभी नहीं छोड़ा। एक बार रैदास जी ने एक ब्रह्मण को एक ‘सुपारी’ गंगा मैया को चढ़ाने के लिए दी थी। ब्राह्मण ने अनचाहे मन से उस सुपारी को गंगा में उछाल दिया।
तभी गंगा मैया प्रकट हुई और सुपारी अपने हाथ में ले ली और उसे एक सोने का कंगन देते हुए कहा- इसे ले जाकर रविदास को दे देना। ब्राह्मण ने जब यह बात बताई तो लोगों ने उपहास उड़ाया।
लोगों ने यहां तक कहा कि रविदास अगर सच्चे भक्त हैं तो दूसरा कंगन लाकर दिखाएं। इस पर रविदास द्वारा बर्तन में रखे हुए जल से गंगा मैया प्रकट हुई और दूसरा कंगन रविदास जी को भेंट किया।

जैनाचार्य श्रीमद विजय राजेंद्र सूरीश्वर महाराज

विक्रम सं. 1883 पौष शुक्ल 7 गुरुवार तदनुसार 3 दिसंबर 1827 के दिन भरतपुर में श्री ऋषभदासजी की धर्मपत्नी श्रीमती केसरबाई की कोख से जन-जन के गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी का जन्म हुआ था। उनके बचपन का नाम ‘रत्नराज’ रखा गया था। वे इतने प्रतिभा संपन्न थे कि 10-12 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने सभी शिक्षाएँ प्राप्त कर ली थीं। उनकी मनोवृत्ति निरंतर वैराग्य की ओर ही आकर्षित रहा करती थी।
बारह वर्ष की अवस्था में पिता की आज्ञा लेकर बड़े भाई माणिकचंदजी के साथ उन्होंने श्री कैसरियाजी तीर्थ की यात्रा की। रत्नराज कुछ दिन भाई के साथ व्यापार के निमित्त बंगाल, सिंहलद्वीप (श्रीलंका) तथा कलकत्ता भी रहे। बाद में पुनः भरतपुर आ गए। माता-पिता के स्वर्गगमन से रत्नराज की परोपकारी चित्तवृत्ति निरंतर वैराग्य की ओर होती गई। वे उच्चतम आचार्यों एवं मुनिराजों के दर्शन करने के प्रति उत्साहित रहने लगे।

विक्रम संवत्‌ 1903 वैशाख शुक्ल 5 को शुभ नक्षत्र में श्री प्रमोद विजयजी के कहने से उनके बड़े भ्राता श्री हेम विजयजी के पास ‘मति दीक्षा’ स्वीकार की और संघ के समक्ष उनका नाम ‘श्री रत्न विजयजी’ रखा गया उनके अनेक गुणों और प्रतिभाशाली प्रभुत्व को देखकर श्री देवेन्द्रसूरीजी ने उन्हें उदयपुर में बड़ी दीक्षा और पन्यास पदवी प्रदान करवाई। सं. 1923 का चातुर्मास श्री धरणेन्द्रसूरीजी ने राजस्थान के धाणेराव नगर में किया।

उस समय पन्यास रत्न विजयजी आदि 50 यति साथ में थे। इसके बाद श्री रत्न विजयजी भादवा सुदी 2 के दिन श्री प्रमोदरुचिजी तथा धनविजयजी आदि कई योग्य यतियों को साथ लेकर आहोर आए। श्रीसंघ की सम्मति से पूर्व परंपरागत ‘सूरी’ मंत्र देकर रत्न विजयजी को महोत्सवपूर्वक सं. 1923 वैशाख शुक्ल 5 बुधवार के दिन श्री पूज्य पदवी प्रदान की गई।

श्रीमद् गुरुदेव ने अपने जीवनकाल में 121 ग्रंथों की रचना की। उनका महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘अभिधान राजेन्द्र कोष’ प्राकृत महाकोष है। इसमें श्लोक संख्या करीब साढ़े चार लाख है और ‘अ’ कारादि वर्णानुक्रम से 60 हजार प्राकृत शब्दों का संग्रह है।

श्रीमद् गुरुदेव म.सा. का अंतिम चातुर्मास बड़नगर में था। चातुर्मास पूर्ण होने पर गुरुदेव ने राजगढ़ (धार) की ओर विहार किया। इस समय उनको साधारण-सा श्वास रोग हुआ था, किंतु उसका प्रकोप धीरे-धीरे बढ़ने लगा। ठंड का समय था। रोग बढ़ने पर भी वे अपनी साधु क्रिया में शिथिल नहीं हुए। उन्होंने सभी साधुओं को निकट बुलाकर कहा कि हमारे इस विनाशी शरीर का अब भरोसा नहीं, इसलिए तुम लोग साधु क्रिया पालन में दृढ़ रहना। ऐसा न हो कि जो चारित्र रत्न तुम्हें मिला है, वह निष्फल हो जाए।

इस प्रकार अपने सभी शिष्यों को सुशिक्षा देकर उन्होंने समाधिपूर्वक अनशन व्रत को धारण कर लिया और सभी औषधि उपचार बंद कर दिया। विक्रम सं. 1963 पौष शुक्ल सप्तमी को उन्होंने शरीर का समाधियुक्त परित्याग किया तथा मोक्ष में विराजमान हुए। ऐसे विरले वैराग्यभावी संत का जन्म एवं निर्वाण दिवस एक ही तिथि को था।

इन संतों ने संसार में यह सन्देश दिया है कि जाति और धर्म से बड़ा मानवता का धर्म है। सच्चे मन से की गई सेवा ही जीवन को सफल बनाती है। इस संसार में भगवान किसी भी जाति का नहीं है। वह संसार के हर प्राणी के दिल में रहता है, इसलिए हमें बुराई द्वेष आदि को छोड़कर एक सच्चा इंसान बनाना चाहिए।

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