ध्यान क्या है?वर्तमान में जीना ही ध्यान है। एकाग्रता ध्यान नहीं है। ध्यान का मूल अर्थ है जागरूकता, अवेयरनेस, होश, साक्षी भाव और दृष्टा भाव। ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। एकाग्रता टॉर्च की स्पॉट लाइट की तरह होती है जो किसी एक जगह को ही फोकस करती है, लेकिन ध्यान उस बल्ब की तरह है जो चारों दिशाओं में प्रकाश फैलाता है।
क्रिया नहीं है ध्यान। बहुत से लोग क्रियाओं को ध्यान समझने की भूल करते हैं, जबकि क्रियाएं ध्यान को जगाने की विधियां हैं। विधि और ध्यान में फर्क है। क्रिया तो साधन है साध्य नहीं। क्रिया तो ओजार है। क्रिया तो झाड़ू की तरह है। आंख बंद करके बैठ जाना भी ध्यान नहीं है। किसी मूर्ति का स्मरण करना भी ध्यान नहीं है। माला जपना भी ध्यान नहीं है। ध्यान है क्रियाओं से मुक्ति। विचारों से मुक्ति। ध्यान अनावश्यक कल्पना व विचारों को मन से हटाकर शुद्ध और निर्मल मौन में चले जाना है। विचारों पर नियंत्रण है ध्यान।
ध्यान में इंद्रियां मन के साथ, मन बुद्धि के साथ और बुद्धि अपने स्वरूप आत्मा में लीन होने लगती है। जिन्हें साक्षी या दृष्टा भाव समझ में नहीं आता उन्हें शुरू में ध्यान का अभ्यास आंख बंद करने करना चाहिए। फिर अभ्यास बढ़ जाने पर आंखें बंद हों या खुली, साधक अपने स्वरूप के साथ ही जुड़ा रहता है और अंतत: वह साक्षी भाव में स्थिति होकर किसी काम को करते हुए भी ध्यान की अवस्था में रह सकता है।
ध्यान क्यों?निरोगी रहने के लिए ध्यान। ध्यान से उच्च रक्तचाप नियंत्रित होता है। सिरदर्द दूर होता है। शरीर में प्रतिरक्षण क्षमता का विकास होता है। ध्यान से शरीर में स्थिरता बढ़ती है। यह स्थिरता शरीर को मजबूत करती है।
आधुनिक मनुष्य के लिए ध्यान जरूरी क्योंकि ध्यान से मन और मस्तिष्क शांत रहता है। ध्यान करने से तनाव नहीं रहता है। दिल में घबराहट, भय और कई तरह के विकार भी नहीं रहते हैं। ध्यान आपके होश पर से भावना और विचारों के बादल को हटाकर शुद्ध रूप से आपको वर्तमान में खड़ा कर देता है। ध्यान के अभ्यास से जागरूकता बढ़ती है। ध्यानी व्यक्ति यंत्रवत जीना छोड़ देता है।
खुद को जानने के लिए ध्यान जरूरी। विचारों और खयालों के बादल में छुप गई आत्मा को पाने का एक मात्र तरीका ध्यान ही है। कहते हैं कि मरने के बाद व्यक्ति बेहोशी के अंधकार में चला जाता है, लेकिन ध्यानियों की कोई मृत्यु नहीं होती। स्वयं को ढूंढने के लिए ध्यान ही एक मात्र विकल्प है।
ध्यान से वर्तमान को देखने और समझने में मदद मिलती है। शुद्ध रूप से देखने की क्षमता बढ़ने से विवेक जाग्रत होगा। विवेक के जाग्रत होने से होश बढ़ेगा। होश के बढ़ने से मृत्यु काल में देह के छूटने का बोध रहेगा। देह के छूटने के बाद जन्म आपकी मुट्ठी में होगा। यही है ध्यान का महत्व। ध्यान को छोड़कर बाकी सारे उपाय प्रपंच मात्र है। ज्ञानीजन कहते हैं कि जिंदगी में सब कुछ पा लेने की लिस्ट में सबमें ऊपर स्वयं को रखो। मत चूको स्वयं को। 70 साल सत्तर सेकंड की तरह बीत जाते हैं।
मनुष्य जैसे जैसे संवेदनाओं का स्तर गिरता जा रहा है वह पशुवत जीवन जिने लगा है। आज के मनुष्य में सभी तरह की पाशविक प्रवृत्तियां बढ़ गई है। परिवार टूट रहे हैं, हिंसा, बलात्कार और ईर्ष्या का स्तर बढ़ गया है। मनुष्य अब शरीर के नीचले स्तर पर जिने लगा है। इस सब का कारण यह यह कि मनुष्य खुद से दूर चला गया है। ध्यान आपको खुद से जोड़ता है। आत्मा से जोड़ता है और वह संवेदनशील एवं प्रेमपूर्ण बनाता है। दुनिया को आज प्रेम, हास्य और संवेदनाओं की ज्यादा जरूरत है। अग्नि की तरह है ध्यान। बुराइयां उसमें जलकर भस्म हो जाती हैं।
ध्यान कैसे करें?कैसे करें ध्यान? यह उसी तरह है कि हम पूछें कि कैसे श्वास लें, कैसे जीवन जीएं, कैसे जिंदा रहें या कैसे करें प्यार। आपसे सवाल पूछा जा सकता है कि क्या आप हंसना और रोना सीखते हैं या कि पूछते हैं कि कैसे रोएं या हंसे? ध्यान हमारा स्वभाव है, जिसे हमने संसार की चकाचौंध के चक्कर में खो दिया है।
ध्यान करने के लिए शुरुआती तत्व- 1.श्वास की गति, 2.मानसिक हलचल 3. ध्यान का लक्ष्य और 4.होशपूर्वक जीना। उक्त चारों पर ध्यान दें तो तो आप ध्यान करना सीख जाएंगे।
श्वास की गति अर्थात छोड़ने और लेने पर ही ध्यान दें। इस दौरान आप अपने मानसिक हलचल पर भी ध्यान दें कि जैसे एक खयाल या विचार आया दो गया और फिर दूसरा विचार आया और गया। आप पर देखें और समझें कि क्यों में व्यर्थ के विचार कर रहा हूं?
ध्यान और लक्ष्य में आपको ध्यान करते समय होशपूर्वक देखने को ही लक्ष्य बनाना चाहिए। यंत्रवत ना जिएं। दूसरे नंबर पर सुनने को रखें। ध्यान दें, गौर करें कि बाहर जो ढेर सारी आवाजें हैं उनमें एक आवाज ऐसी है जो सतत जारी रहती है- जैसे प्लेन की आवाज जैसी आवाज, फेन की आवाज जैसी आवाज या जैसे कोई कर रहा है ॐ का उच्चारण। अर्थात सन्नाटे की आवाज। इसी तरह शरीर के भीतर भी आवाज जारी है। ध्यान दें। सुनने और बंद आंखों के सामने छाए अंधेरे को देखने का प्रयास करें। इसे कहते हैं निराकार ध्यान।
होशपूर्वक जीना का अर्थ है कि क्या सच में ही आप ध्यान में जी रहे हैं? ध्यान में जीना सबसे मुश्किल कार्य है। व्यक्ति कुछ क्षण के लिए ही होश में रहता है और फिर पुन: यंत्रवत जीने लगता है। इस यंत्रवत जीवन को जीना छोड़ देना ही ध्यान है।
जैसे की आप गाड़ी चला रहे हैं, लेकिन क्या आपको इसका पूरा पूरा ध्यान है कि ‘आप’ गाड़ी चला रहे हैं। आपका हाथ कहां हैं, पैर कहां है और आप देख कहां रहे हैं। फिर जो देख रहे हैं पूर्णत: होशपूर्वक है कि आप देख रहे हैं वह भी इस धरती पर।