पंज को हिन्दी में पांच कहते हैं अर्थात ‘पांच प्यारे।’ सिख धर्म में पंज प्यारे कौन थे यह बहुत कम लोग नहीं जानते होंगे। जो नहीं जानते है उनके लिए जानना जरूरी है। कहते हैं कि ‘पंज प्यारे’ बहुत ही बहादुर पांच लोग होते हैं। आओ जानते हैं कि ‘पंज प्यारे’ कौन होते हैं।
पंच प्यारे खालसा पंथ से जुड़े हैं। कहते हैं कि गुरु गोविंद सिंह के समय मुगल बादशाह औरंगजेब का आतंक जारी था। उस दौर में देश और धर्म की रक्षार्थ सभी को संगठित किया जा रहा था। सिखों के गुरु तेग बहादुर सिंहजी की हत्या के बाद उनके बेटे गुरु गोविंद सिंहजी 10वें गुरु गुरु गद्दी पर बैठे।
एक बार गुरुजी ने धर्म की रक्षार्थ बलिदान देने के लिए 3 मार्च, 1699 को वैशाख के दिन केशगढ़ साहिब के पास आनंदपुर में एक सभा बुलाई। इस सभा में हजारों लोग इकट्ठा हुए। यह भी कहा जाता है कि इस दौरान दुर्गा का यज्ञ रखा गया था। उन्होंने लोगों को परखने के लिए एक लीला रची। वे इस सभा में अपने हाथ में एक नंगी तलवार लेकर पहुंचे और कहने लगे कि ‘मुझे एक व्यक्ति का सिर चाहिए, जो देना चाहता हो वो आगे आएं।’ यह भी कहा जाता है कि गुरुजी ने कहा था कि, देवी दुर्गा ने बलिदान मांगा है। क्या आप में से कोई ऐसा वीर है, जो देवी की प्रसन्नता के लिए अपना सिर दे सके?”
सभा में कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। उन्होंने इस तरह तीन बार आह्वान किया कि क्या कोई है जो अपना सिर दे सके? तभी 30 वर्षीय लाहौर के निवासी भाई दयाराम खत्री उठे और वे गुरुजी के सामने शीश नवाकर खड़े हो गए। गुरुजी उसे अपने साथ तंबू के अंदर ले गए और खून से सनी तलवार लेकर बाहर निकले।
फिर से उन्होंने लोगों से कहा कि एक और बलिदान चाहिए। जो देना चाहता हो वह सामने आए। चुपचाप खड़ी भीड़ में से तभी 33 वर्षीय दिल्ली निवासी भाई धर्मसिंह जाट ने आगे आकर सिर झुका दिया। गुरुजी उसे भी अंदर ले गए और खून से सनी तलवार के साथ बाहर आए। सभी यह घटना देखकर स्तब्ध थे।
तीसरी बार गुरुजी ने आकर फिर कहा कि और कोई है जो बलिदान देने के लिए तैयार हो? अब की बार 36 वर्षीय मोखम या मोहकचंद धोबी आगे आए। गुरुजी उनको भी तंबू में ले गए और इस बार तंबू के बाहर रक्त की धार बहती दिखाई दी।
गुरुजी इस बार रक्त से पूर्णत: सनी हुई तलवार लेकर बाहर आए और फिर से वहीं मांग की। इस बार दोनों बार क्रम से 33 वर्षीय बीदर निवासी भाई साहबचंद नाई और 38 वर्षीय जगन्नाथ निवासी भाई हिम्मतराय कुम्हार ने अपना सिर गुरुजी के समक्ष खड़े होकर झुका दिया। दोनों की वही दशा हुई जो प्रथम तीन की हुई थी।
बलिदान के इस दृश्य को देखकर लोगों की भावनाएं उमड़ पड़ी और संपूर्ण जनसमूह गुरुजी से कहने लगा कि- “हमारा सिर लीजिए, हमारा सिर लीजिए।”
फिर गुरुजी तंबू में गए और आखिर में वे उन पांचों को लेकर बाहर आए जिन्होंने सबसे पहले सिर देना स्वीकार किया था। उन पांचों ने सफेद पगड़ी और केसरिया रंग के कपड़े पहने हुए थे। यही पांच युवक उस दिन से ‘पंच प्यारे’ कहलाए।
तब गुरुदेव ने वहां उपस्थित सिक्खों से कहा, आज से ये पांचों मेरे पंच प्यारे हैं। इनकी निष्ठा और समर्पण से खालसा पंथ का आज जन्म हुआ है। आज से यही तुम्हारे लिए शक्ति का संवाहक बनेंगे।
यही ध्यान, धर्म, हिम्मत, मोक्ष और साहिब का प्रतीक भी बने।
तभी तो गुरु गोविंद सिंह ने कहा ‘सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियों से मैं बाज तुड़ाऊ- तब गोविंद सिंह नाम कहाऊ।’
इन पंच प्यारों को गुरुजी ने अमृत (अमृत यानि पवित्र जल जो सिख धर्म धारण करने के लिए लिया जाता है) चखाया। इसके बाद इसे बाकी सभी लोगों को भी पिलाया गया। इस सभा में हर जाती और संप्रदाय के लोग मौजूद थे। सभी ने अमृत चखा और खालसा पंथ के सदस्य बन गए।