“मुख्यमंत्री जी, मंत्री जी… इंदौर का धैर्य अब रिस रहा है!”

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पुरस्कारों के बोझ से दबा शहर बोल उठा—मेरी चमक नहीं, मेरा रास्ता बनाइए… मास्टर प्लान के बिना विकास नहीं, अव्यवस्था का दंगल जारी

देवेन्द्र मराठा

मुख्यमंत्री जी, मंत्री जी… मैं वह शहर हूं, जिसे आप लोग मंच पर “देश का आइकॉन” कहकर चमकाते हैं, मेडल पहनाकर झंकारते हैं, और उपलब्धियों के ढोल पर नचाते हैं। लेकिन सुनिए—इन तमगों के अंदर एक शहर है, जो भीतर से हिल चुका है। मेरा ढांचा थक गया है, मेरे रास्ते दिशाहीन घूम रहे हैं, मेरी हवा खांस रही है और मेरा भविष्य आपके कागज़ों में लटका रह गया है। वजह साफ—मैं बिना मूल नक्शे, बिना दीर्घ योजना, बिना जड़-जोड़ के ऐसे आगे बढ़ रहा हूं जैसे किसी अंधेरे में टटोलकर दौड़ने वाला इंसान। विकास की दौड़ में धक्का मुझ पर पड़ रहा है, तालियां आप ले रहे हैं।देश भर में स्वच्छता के तमगे और स्मार्टनेस के नारे इकट्ठे करते-करते यह शहर अपने असली सवालों को कब का निगल चुका है। विकास की फोटो और प्रशंसा की प्रेस रिलीज़ों के बीच असल दर्द दबा दिया गया—कि शहर की रफ्तार बिना दिशा के ऐसे दौड़ रही है जैसे कोई कार बिना हेडलाइट के रात में हाईवे पकड़ ले। 2008 का आखिरी नक्शा, जो शहर की हड्डियों को आकार देता था, 2021 में ही खत्म हो चुका है। उसके बाद से शहर का हर हिस्सा अपने-अपने निजी नक्शानवीसों के हवाले कर दिया गया है—जहाँ जिसे फायदा दिखा, वहीं शहर की लकीर मोड़ दी गई। बायपास के बाहर अनियंत्रित फैलाव ऐसा बढ़ा है मानो शहर नहीं, एक बड़ा बाजार खुल गया हो। राऊ-पीथमपुर की तरफ औद्योगिक लालच, खंडवा रोड की हरियाली को चाटते प्लॉट—इन सबने शहर को एक ऐसे आकार में ढाल दिया है जो न गोल है, न चौकोर—बस “जो मिला, जोड़ दो” टाइप। हरियाली घटकर 9% रह गई, गर्मी की चपट मार बढ़ गई, और हवा में धूल ऐसे फैल रही है कि सांस नहीं, चूरा अंदर जाता है। अगर यही रफ्तार रही, तो आने वाले समय में लोग घरों से पहले मास्क और दवाइयां लेकर निकलेंगे। शहर की आबादी के अनुमान ने भी मजाक का रूप ले लिया है। 19 लाख के हिसाब से बना प्लान अब 30–35 लाख का आंकड़ा बोलता है, पर सड़कों की भीड़ चीखकर बता रही है कि 40 लाख की भीड़ अभी ही बैटिंग कर रही है। लेकिन इस विस्फोटित आबादी के लिए न नई सड़कें तैयार हैं, न नए ट्रांसपोर्ट की दिशा, न जल–भूमि–संसाधनों की रणनीति। योजनाओं की राजनीति तो अलग ही खेल है—एक सरकार बीआरटीएस को भविष्य का रास्ता बताकर बनवाती है, दूसरी उसे मुसीबत कहकर उखाड़ देती है। मेट्रो का डिजाइन ऊपर-नीचे, अंडरग्राउंड-ओवरग्राउंड ऐसे घुमाया जाता है जैसे किसी बच्चे के खिलौने की पटरियां बदल रही हों। शहर की पहचान के साथ छेड़छाड़ ऐसे होती है जैसे कॉपी का पन्ना फाड़कर नए स्केच बना देना हो। सारी दुनिया के सामने 2050 का सपना दिखाया जा रहा है, मगर नींव इतनी कमजोर कर दी गई है कि उस सपने का भार तक शहर उठाए नहीं उठा पाएगा। शहर ऐसा खड़ा है जैसे कोई पुल टूटा हो और दोनों ओर खड़े लोग भरोसे में हों कि सामने वाला इसे जोड़ देगा—पर कोई आता ही नहीं। तो अब बताएँ मान्यवरों—क्या शहर का भविष्य ऐसे कंपकंपाती नींवों पर टिका रहेगा? क्या ट्रॉफियों की चमक शहर की हवा साफ कर देगी, पानी बढ़ा देगी, भीड़ कम कर देगी? क्या विकास की तस्वीरें असल प्लान का स्थान ले सकती हैं? शहर पूछ रहा है—“मेरी दिशा कहाँ है साहब? मेरे पांव में जूते तो पहना दिए, पर सड़क किस ओर है, यह कौन बताएगा?”कागज़ों में भविष्य चमकता होगा, पर जमीन पर शहर आज भी यही कह रहा है—“भाषणों से नहीं, योजनाओं से मेरी जिंदगी बदलेगी… और वो योजना कहाँ है?”

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