उत्क्रांति के रास्ते हिन्दी युग की स्थापना

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उत्क्रांति के रास्ते हिन्दी युग की स्थापना

*—-मृदुल जोशी*

हिन्दी को प्रचार प्रसार की आवश्यकता है, पर किस तरह, यह एक बहुत मूल प्रश्न है । आम तौर पे कोई भी आंदोलन को स्थापित करने के लिए एक विशेष रणनीति की आवश्यकता होती है, किंतु जब किसी माध्यम को स्थापित करना हो, तो वहां रणनीति की अपेक्षा एक स्वस्फुरित प्रसार की आवश्यकता होती है ।
कोई भी स्थापना दो कर्म प्रभाव से संपन्न होती है एक है क्रांति और दूसरी है उत्क्रांति। क्रांति की आवश्यकता एक वर्ग विशेष की विचार स्थापना, समयकाल विशेष तथा परिस्तिथि विशेष के लिए उतपन्न होती है। वर्ग, समय या परिस्थितियों के बदलने पर क्रांति के उद्देश्य का अस्तित्व खत्म हो जाता है और क्रांति अस्तित्वहीन हो जाती है। क्रांति की बारम्बारता नहीं होती है और कतिपय सम्भव भी नहीं। क्रांति में बदलाव बाहर से शुरू हो कर अन्तस् में स्थापित होने का प्रयास करता है और यह केवल प्रयास ही होता है कोई पूर्णकालिक स्थापना नही । अतः क्रांति एक तंत्र की स्थापना कर सकती है लेकिन माध्यम की नही।
उत्क्रांति में बदलाव अंदर से बाहर की और प्रसारित होते है और मूल तत्व में वो एक सूत्र में बंधे होते हैं। बाह्य दर्शन या बाह्य गुणलाभः भले ही एकात्मता के अभाव को प्रसारित करते प्रतीत हों पर अन्तस् में मूलता समानता लिए होती है । जैसे एक कोशीय जीव का बहु कोशीय जीव में परिवर्तन और उन्नयन एक उत्क्रांति का परिणाम है लेकिन भीमकाय जीव जैसे डायनासोर का धरती से समाप्त हो जाना एक क्रांति का परिणाम है जिसका बीज एक उल्कापिंड के धरती पर आने में निहित था।

हिन्दी एक भाषा है, संवाद का माध्यम है और माध्यम की स्थापना क्रांति की अपेक्षा उत्क्रांति से ही सम्भव है । माध्यम में बदलाव नहीं होता है, माध्यम की सिर्फ स्थापना होती है और वो भी एक मूल तत्व को आधार लेकर। हिन्दी के साथ भी यही उत्क्रांति की प्रणाली काम करेगी। भाषा का प्रसार एक ऐसी तकनीकी से करना होगा जो कि किण्वन या खमीरीकरण के सिद्धान्त पर आधारित हो। एक विचार मन मस्तिष्क में हिन्दी प्रेम नामक किण्वन बीज के रूप में स्थापित हो और वो सब हिन्दी न सीखने के कारण को हिन्दी प्रेम में परिवर्तित कर दे। लेकिन ये बहुत सम्भव रूप में एक प्रारम्भिक स्तिथि में क्रान्ति जैसी प्रक्रिया होगी तत्पश्चाय वो उन्नयन की अवस्था मे आएगी। और इन दोनों का समग्र रूप यानी क्रान्ति धन उन्नयन, उत्क्रांति जैसा या हिन्दी उत्क्रांति में परिवर्तित हो जाएगा । एक और उदाहरण है दही के जमावन को जब दूध में डालते हैं तब दही शनैः शनैः सम्पूर्ण दूध को दही में परिवर्तित कर देता है । यहां दही दुध से लड़ने के लिए नही वरन उसे परिवर्तित करने आया है। यही बात किण्वन और उन्नयन के साथ हिन्दी प्रसार में स्थापित होती है। हिन्दी प्रेम का एक तत्व हिन्दी से नफरत या हिन्दी के नकारने को समूल हिन्दी आकर्षण में बदल देगा ।

आंग्ल भाषा से कोई बैर नही है, किंतु वो हमें हमारी व्यवस्था का एक सुचारू संवाद माध्यम न दे पाए तो ये बहुत ही दुखद अवस्था है। लगभग 5 प्रतिशत से भी कम आंग्ल वार्ताकारों के लिए सम्पूर्ण देश की व्यवस्था नतमस्तक सी विद्यामान हो ये देश की अस्मिता का सबसे कटु अपमान है ।

तर्क बहुत है की हिन्दी की जरूरत नही है पर एक सार्वभौमिक सत्य को शायद ही कोई नकार पाए कि 70% संस्कृत को समाहित करने वाली हिन्दी न्यूनतम % से 30% तक अन्य भाषाओं में अपनी आभा प्रसारित कर रही है। आप भारत मे प्रचलित सभी भाषाएं जैसे मलयालम, तमिल तेलुगु या गुजराती, बंगला, आसामिया या पंजाबी अथवा कश्मीरी हो कहीं न कहीं हिन्दी के दर्शन हो ही जाते है ।
आंग्ल भाषा मे भी कई शब्द हिन्दी के मिल जाएंगे जैसे किस्मत, साहेब, बाबू, आदि। तो कुल मिला के हिन्दी के किण्वन के बीज तो भारतवर्ष की जनता के मन मष्तिष्क के उनकी अपनी मातृभाषा के अंदर ही प्रसारित है बस एक उसे एक सूत्र में बांधने के लिए हिन्दी के लिए सही वातावरण बनाना है। यह परिकल्पना हिन्दी उत्क्रांति का पहला भाग यानी क्रान्ति स्थापित कर रही है ।

एक तर्क और मिलता है कि अपनी स्थानीय भाषा या मातृभाषा को छोड़ कर हिन्दी पर ध्यान क्यों दें। तो इसके लिए भी एक समाधान है । आप तीन भाषाएं सीखिए । डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ की नव त्रिभाषा सूत्र किताब में यही व्याख्या है कि एक आपकी मातृभाषा एक राष्ट्रभाषा और तीसरी अंतरराष्ट्रीय भाषा । मातृभाषा में मलयाली, बंगाली, गुजराती, उर्दू आदि सीखिये और राष्ट्रभाषा में हिन्दी को अपनाइए बाकी अंतरराष्ट्रीय भाषा मे अंग्रेजी को अपनाइए । फायदा है ज्यादा भाषाएँ सीखेंगे तो मस्तिक्ष की तीक्ष्णता को पोषण मिलता है। यही परिकल्पना हिन्दी उन्नयन की और इंगित कर रही है तथा उत्क्रांति का दूसरा भाग स्थापित कर रही है ।

हिन्दी उत्क्रांति, हिन्दी को राष्ट्रीय एकता का एक पुष्ट सूत्र बनने की और अग्रसर है और इसका एक तर्क सम्मत सत्यापन ऊपर स्थापित किया जा चुका है। हिन्दी भाषा को जन समर्थन तो प्राप्त है लेकिन एक उपेक्षा का महीन तत्व भी मनस में आंदोलित है और उसका भी समाधान तर्कपूर्ण परिकल्पना से संभव है ।

मन से मन तक और तत्पश्चात जीवनचर्या तक यानी घर से व्यापार तक हिन्दी का प्रचार व प्रसार सुनिश्चितता से सुलभ है बस एक किंवणीय उरप्रेरक की जरूरत है जो कि हिन्दी योद्धा के कर्म के रूप में परिलक्षित होगा व हो भी गया है। हिन्दी योद्धाओं का एक समूह भिन्न देशों में अपने अपने स्तर पर हिन्दी को स्थापित करने का अथक प्रयास कर रहा है । इसी परपेक्ष ने भारत मे “मातृभाषा उन्नयन संस्थान” ने हिन्दी उत्क्रांति के मूल विचार को आधार बनाकर एक ठोस रणनीति तैयार की है जिसको लागू करके हिन्दी को जन जन की और राष्ट्र की एक समृद्ध राष्ट्रभाषा बनाने के का प्रण लिया है ।
इसी प्रयास को ध्यान में रख कर एक मन का निश्चय सामने आता है कि ,भविष्य, हिन्दी का उज्ज्वल है और यह बात राष्ट्रीय स्तर पर सभी को जल्द ही स्वीकारनी होगी ।

*मृदुल जोशी, इंदौर*
राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य- मातृभाषा उन्नयन संस्थान

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