*विचारधारा की कब हत्या हो गई मालूम ही नहीं चला…*
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*डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’*
राजनैतिक दलों के जन्म के मूल में जो तत्व रहें उनमें अग्रणी तत्व के रुप में _विचारधारा_ रही ।
हर दल के जन्म का कारण ही एक विचारधारा रही है, विचारधारा में भिन्नताओं से ही दलों का निर्माण हुआ, और जनता ने _विचारधारा_ की स्वीकार्यता के चलते दलों को चुना और दलों को स्वीकार किया।
परन्तु बीते दशकों में राजनीति की दुर्दशा के चलते सबसे महत्वपूर्ण तत्व पर व्यक्तित्ववाद, चेहरा हावी होता चल गया और फिर पार्टियों के स्वरुप पर व्यक्तित्ववाद हावी हो गया।
देश के सभी राजनैतिक दलों के नैतिक पतन का कारण केवल और केवल _विचारधारा_ की उपेक्षा या कहें हत्या ही है।
आज जब राजनीति के सम्पूर्ण को देखा जाए तो सभी राजनैतिक दलों से विचारधारा गौण हो चुकी है और हावी है तो केवल व्यक्तिवादी चेहरा ।
कांग्रेस में राहुल तो भाजपा में मोदी-शाह हावी है, सपा में मुलायम को राजद में लालू-राबड़ी, जदयू में नितिश तो बसपा में माया,आम आदमी पार्टी में केजरीवाल तो तृणमूल में ममता का प्रभाव है । मूल तत्व का जिक्र करना भी संभवत: पाप माना जाने लगा है ।
किसी भी राजनैतिक दल को वोट मांगते देख लीजिए, कोई राहुल, कोई मोदी, कोई लालू, कोई केजरीवाल के नाम पर वोट मांग रहा है, कार्यकर्ताओं को जोड़ना भी *पोस्टरबॉय* चेहरों के नाम पर धड़ल्ले से हो रहा है। पर कहीं कोई जिक्र भी नहीं होता है तो केवल सिद्धान्त और विचारधारा का ।
असल मायने में राजनीति की दुर्दशा का आरंभ तो *इण्डिया इज इंदिरा,इंदिरा इज इण्डिया* के दौर से हो चुकी थी जो *अबकि बार मोदी सरकार* जैसे ध्येय वाक्यों पर प्रखरता से दिखने लगी ।
बहरहाल इस विचारधारा की हत्या के बारे में सोचे तो यही तथ्य सामने आता है कि राजनीति से शुचिता के गायब होने का कारण विचारधारा शून्यता और सैद्धान्तिक सत्यता का अवसान है।
यदि अब भी राजनैतिक दलों ने _विचारधारा_ के पौधे रोपना आरंभ नहीं किया तो समय के दूसरे दौर में राजनीति नामक संस्थान की भी हत्या हो जाएगी, शेष रहेगी तो केवल गुण्डई और दोगलापन ।
*डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’*
खबर हलचल न्यूज, इंदौर