नई दिल्ली। विवाहेतर संबंधों के मामले में केवल पुरुष को दोषी मानने वाली IPC की धारा 497 को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार को व्यभिचार के लिए केवल पुरुष को दोषी ठहराने वाली धारा की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई के बाद फैसला सुनाया।मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने आठ अगस्त को इस पर फैसला सुरक्षित रखा था।
मामले में जस्टिस आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा की पीठ समान रूप से धारा 497 को रद्द कर दिया है। फैसला सुनाते हुए चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, एएम खानविलकर और आरएफ नरीमन ने अपना फैसला सुनाते हुए विवाहेतर संबंधों को अपराध के दायरे से मुक्त करते हुए 158 साल पुरानी धारा 497 को रद्द कर दिया है।
अपना फैसले में चीफ जस्टिस ने कहा कि महिला के साथ असम्मान का व्यवहार असंवैधानिक है। महिला और पुरुष समान हैं और उन्हें समान अधिकार है। व्यभिचार रोधी कानून एकपक्षीय और मनमाना है। कोर्ट ने कहा कि धारा 497 महिला के खिलाफ है। पति पत्नी का मालिक नहीं हो सकता। विवाहेतर संबंध तब तक अपराध नहीं है जब तक वो आत्महत्या के लिए प्रेरित नहीं करता।
कोर्ट ने यह भी कहा कि मूलभूत अधिकारों में महिलाओं के अधिकारों का भी समावेश होना चाहिए। समाज में व्यक्तिगत सम्मान भी महत्वपूर्ण है। सिस्टम महिला के साथ असमान व्यवहार नहीं कर सकता।
चीफ जस्टिस और जस्टिस खानविलकर ने यह भी कहा है कि इसमें कोई संदेह नहीं कि यह तलाक का आधार हो सकता है। यह कानून महिला की चाहत और सेक्सुअल च्वॉयस का असम्मान करता है। हालांकि, यदि व्यभिचार की वजह से एक जीवनसाथी खुदकुशी कर लेता है और यह बात अदालत में साबित हो जाए, तो आत्महत्या के लिए उकसाने का मुकदमा चलेगा।
यह थी 158 साल पुरानी धारा 497
158 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 497 में विवाहेतर संबंधों को अपराध माना गया था। इसमें विवाहेतर संबंध रखने वाले पुरुष को आरोपित कहा गया था।
इसके मुताबिक, किसी व्यक्ति की सहमति के बिना उसकी पत्नी से संबंध रखना दुष्कर्म नहीं होगा, बल्कि इसे व्यभिचार माना जाएगा। इसमें यह भी कहा गया है कि महिला किसी गैर मर्द से संबंध बनाती है तो उस व्यक्ति के खिलाफ कानून कार्रवाई की जा सकती है। इसमें अगर महिला संबंध मर्जी से बनाने से इन्कार करती है तो यह दुष्कर्म का मामला होगा वहीं अगर संबंध बनाना कबूल करती है तो व्यभिचार कहलाएगा।
इस पर सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा था कि प्रथम दृष्टया यह कानून लैंगिक समानता की अवधारणा के खिलाफ है। ऐसे मामले में केवल पुरुष को ही दोषी क्यों माना जाए? केंद्र सरकार ने यह कहते हुए कानून का समर्थन किया है कि विवाह