हिंदी प्रचार का पर्याय मातृभाषा उन्नयन संस्थान

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शिखा जैन

भारत की आज़ादी के पहले ही एक क्रांति अपना अस्तित्व तलाश रही थी, उसी के माध्यम से भारतभर में एक सूत्रीय संपर्क स्थापित हो सकता था। संवाद और संपर्क के प्रथम कारक में हिंदी भाषा का अस्तित्व उभर कर आया। दशकों से हिन्दी भाषा के स्वाभिमान, स्थायित्व और जनभाषा के तौर पर स्वीकार्यता का संघर्ष जारी है। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में भावनात्मक क्रांति का शंखनाद हो चुका था। उस समय भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति अत्यन्त दयनीय हो चुकी थी। देश में होने वाले आन्दोलनों से जन-जीवन प्रभावित हो रहा था। इसी बीच भारत की राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय आन्दोलनों के लिए एक भाषा की आवश्यकता सामने आई और उसी दौरान हिन्दी को बतौर जनभाषा स्वीकार्यता भी प्राप्त हुई। भारत की राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए एक भाषा की आवश्यकता सामने आई। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सामाजिक, धार्मिक ही नहीं, राजनीतिक आंदोलनों में हिंदी मुख्य भाषा सिद्ध हुईं इस प्रकार हिन्दी को व्यापक जनाधार मिला। राष्ट्रीय भावना जगाने हेतु हिन्दी को संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग किया गया। विभिन्न व्यक्तियों और संस्थानों द्वारा हिंन्दी-प्रयोग हेतु आन्दोलन के रूप में कार्य किया गया। बिहार ने सबसे पहले अपनाई थी हिंदी को, बनाई थी राज्य की अधिकारिक भाषा बिहार देश का पहला ऐसा राज्य है, जिसने सबसे पहले हिंदी को अपनी अधिकारिक भाषा माना है। इस आवश्यकता के संदर्भ में डॉ. अम्बा शंकर नागर का कहना था कि- “सन् 1857 का आन्दोलन दासता के विरूद्ध स्वतंत्रता का पहला आन्दोलन था। यह आन्दोलन यद्यपि संगठन और एकता के अभाव के कारण असफल रहा, पर इसने भारतवासियों के हृदय में स्वतंत्रता की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न कर दी। आगे चलकर जब भारत के विभिन्न प्रांतों में स्वतंत्रता के लिए संगठित प्रयत्न आरंभ हुए तो यह स्पष्ट हो गया कि बिना एक जनभाषा के देश में संगठित होना असंभव है।” और जनभाषा के लिए जिस भाषा का चयन किया वो हिन्दी रही क्योंकि तब भी हिन्दी के अतिरिक्त कोई अन्य भाषा ऐसी नहीं थी जो भारत के अधिकांश भूभाग पर बोली जाती हो या अधिकांश जनता की जानकारी व प्रयोग की भाषा हो।

उस क्रांति के बाद हिन्दी का महत्व बढ़ा। लाला लाजपतराय, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, पण्डित मदनमोहन मालवीय, महात्मा गाँधी, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, काका कालेलकर, सेठ गोविन्ददास, स्वामी दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, विनोबा भावे आदि तमाम सभी हिन्दी के समर्थकों द्वारा हिन्दी हितार्थ कई आंदोलन किए, सहभागिता की। आज़ादी के तराने गाने में हिन्दी का अद्भुत योगदान रहा। किन्तु आज़ादी के बाद भारत में ही हिन्दी की अवहेलना में भी कोई कसर नहीं छोड़ी गई।

तथाकथित राजनैतिक कारणों का हवाला देकर दक्षिण भारत में हिन्दी भाषा का विरोध आरम्भ हुआ, जबकि वे बखूबी जानते थे कि उनकी कुल आबादी भी हिन्दी के समर्थकों और जानने-बोलने वालों का एक तिहाई हिस्सा भी पूरा नहीं कर पाएंगे। उसके बावजूद भी हिन्दी को अन्तोगत्वा राष्ट्रभाषा का शिखर कलश नहीं बनाया, न ही भारत में इस भाषा के स्वाभिमान की रक्षा भी नहीं की गई। न ही हिन्दी को रोजगारोन्मुखी भाषा के तौर पर विकसित करने की दिशा में सरकारों द्वारा कोई प्रयास किए गए। अकादमियों, संस्थानों, केंद्रीय हिन्दी निदेशालय आदि द्वारा प्राप्त बजट को महज पुस्तक प्रकाशन हेतु सहायता, आयोजन, पुरस्कार वितरण , सम्मान आदि में ख़र्च किया गया, किन्तु धरातलीय स्तर पर हिन्दी कमतर ही बनी रही।

क्रन्तिकारी लोकमान्य तिलक ने नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के दिसम्बर, 1905 के अधिवेशन में कहा था-देवनागरी को ‘राष्ट्रलिपि’ और हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ होना चाहिए। भारत की आज़ादी के पहले २८ मार्च १९१८ को जब महात्मा गाँधी इंदौर में हिंदी साहित्य समिति की नींव रखने आए थे तब उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का स्वप्न सभी के साथ साझा किया। आज भारत की आज़ादी के ७ दशक से अधिक बीत गए और फिर एक शताब्दी के बाद इसी इंदौर शहर से एक क्रांति का जन्म हुआ जो वर्तमान समय में हिंदी प्रचार और हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए सबसे बड़े आंदोलन का नाम बन चुका है। देश और दुनिया में जिसे ‘मातृभाषा उन्नयन संस्थान’ के नाम से जाना जाता है। हाल ही में दिल्ली में वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स, लंदन के द्वारा इसी संस्थान को ११ लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिंदी में बदलवाने के लिए विश्व कीर्तिमान भी प्रदान किया गया था।

वर्ष 2016 में महज एक वेबसाइट मातृभाषा.कॉम से शुरू होने वाली यात्रा जिसका तब केवल एक उद्देश्य था कि हिन्दी के नवोदित व स्थापित रचनाकारों को मंच उपलब्ध करवाना जहाँ उनका लेखन निशुल्क प्रकाशित हो और पाठकों की पहुँच में आए, आज हिन्दी आंदोलन का अग्रणी नाम बन चुका है।

माँ अहिल्या की नगरी इंदौर से डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’ के नेतृत्व में मातृभाषा उन्नयन संस्थान व हिन्दीग्राम ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का दृढ़ संकल्प लेकर आंदोलन का आरंभ किया।

एक अन्तरताने से शुरू हुई यात्रा ने लोगों को अपनी भाषा, अपनी हिंदी में हस्ताक्षर करने का संकल्प दिलवाना आरम्भ किया। इस आंदोलन के संरक्षक डॉ वेदप्रताप वैदिक जी, चौथा सप्तक में शामिल कवि राजकुमार कुंभज जी व अहद प्रकाश जी है।

इन संस्थानों का प्रथम उद्देश्य हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाना है। साथ ही हिन्दी को रोजगारमूलक भाषा बनाना है, हिंदी में रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाना, भारतीय भाषाओं के सम्मान को अक्षुण्ण बनाए रखना, जनता को जनता की भाषा में न्याय मिले, साहित्य शुचिता का निर्वहन सम्मिलित है।

स्पष्ट लक्ष्य और सुनियोजित कार्यशैली के चलते महज ढाई वर्षों में ही संस्थान देश के लगभग 22 राज्यों में अपनी इकाई बना चुकी है, और जिससे अब तक लगभग 11 लाख से अधिक लोग जुड़ गए है जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु समर्थन दिया व अपने हस्ताक्षर हिंदी में करना आरंभ कर दिए है। आज मातृभाषा उन्नयन संस्थान का अपना पुस्तक प्रकाशन प्रकल्प संस्मय प्रकाशन है, समाचारों के लिए खबर हलचल न्यूज, मासिक संस्मय पत्रिका, मासिक अक्षत धारा पत्र, साहित्यकार कोश है। साहित्यकार कोश में भी देश के विभिन्न प्रान्तों के लगभग 10000 साहित्यकारों की जानकारी सम्मिलित की जा चुकी है। मातृभाषा.कॉम पर लिखने वालों की संख्या 2000 से अधिक व 9 लाख पाठकों का वृहद परिवार है। संस्थान द्वारा ‘हर मंदिर बनें ज्ञानमन्दिर’, ‘हर ग्राम-हिन्दीग्राम’, ‘आदर्श हिन्दीग्राम’, ‘पुस्तकालय अभियान’, ‘समिधा (विशुध्द काव्यांजलि)’, आदि कई अभियान संचालित किए जा रहे है जिसके माध्यम से सतत हिन्दी सेवा का अभिनव कार्य जारी है।

वैसे तो देश में कई संस्थाएँ सक्रियता से हिन्दी सेवा में जुटी है, किन्तु उन सभी संस्थाओं के गुलदस्ते में मातृभाषा उन्नयन संस्थान व हिन्दीग्राम की विशिष्ट पहचान बनती जा रही है। हिंदी का स्वाभिमान स्थापित करने के लिए संस्थान द्वारा कर्मठ हिंदीयोद्धाओं को तैयार किया जा रहा है जो विभिन्न भूभाग पर हिंदी प्रचार का कार्य कर रहे है व हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु समर्थन प्राप्त कर रहे है। आज हिन्दी को जनभाषा या राष्ट्रभाषा बनाने क्व लिए सम्पूर्ण देश का साथ आना आवश्यक है, इसलिए संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’ द्वारा जनसमर्थन अभियान भी संचालित किया जा रहा है जिसके अंतर्गत वे साहित्यिक, राजनैतिक, सामाजिक हस्तियों, सांसद, विधायकों आदि से भेंट कर उनके माध्यम से जनजागृति व हिन्दी समर्थन के स्वर मुखर कर रहें है।

मातृभाषा उन्नयन संस्थान, मध्यप्रदेश के इन्दौर से पंजीकृत संगठन है जो हिन्दी भाषा के राष्ट्रव्यापी प्रचार और हिन्दी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाने हेतु आन्दोलन कर रहा है। यह भारत में हिन्दी की स्थिति मजबूत करने हेतु अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में व अन्य भारतीय भाषाओं का हिन्दी के साथ समन्वय स्थापित करते हुए हिन्दी को रोज़गार मूलक भाषा बनाने की दिशा में कार्य करता है। यह भारत में अनिवार्य शिक्षा में हिन्दी को शामिल करने का पुरजोर समर्थन करता है। साथ ही यह विभिन्न सरकारी एवं गैर सरकारी सेवाओं के लिये अंग्रेजी की अनिवार्यता का भी विरोध करता है। हिन्दी के प्रचार के साथ हिन्दी में हस्ताक्षर को महत्व देते हुए संगठन देशव्यापी हस्ताक्षर बदलो अभियान का संचालन कर रहा है।
मातृभाषा उन्नयन संस्थान का एकमात्र उद्देश्य यही है कि हिन्दी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाया जाए। इसके लिए हमारे द्वारा पूरे समर्पण के साथ प्रयास किए जा रहे है। भारतभर में हस्ताक्षर बदलो अभियान चलाया जा रहा है। इसी के सहित भारत सहित विदेशों के भी हिंदी के हर नवोदित रचनाकार को लेखन का मंच दिया जा रहा है, ताकि विश्व पटल पर हिन्दी चमके।
इसी के साथ मातृभाषा उन्नयन संस्थान का नाम वैश्विक फलक पर दर्ज हो गया। तीन साल पहले मातृभाषा उन्नयन संस्थान के बैनर तले डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’ ने हिंदी में हस्ताक्षर के लिए प्रेरित करने का संकल्प लिया। 2017 में की गई मेहनत का असर बाद के दो सालों में नजर आने लगा। इस अभियान का असर यह हुआ कि पहले जो लोग बैंक से लेकर अन्य सरकारी कामकाज में अंग्रेजी में हस्ताक्षर करते थे न सिर्फ हिंदी में हस्ताक्षर करने लगे हैं बल्कि संस्थान के अभियान का समर्थन करने के साथ प्रधानमंत्री से हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का आग्रह भी कर चुके हैं।

हिन्दी ग्राम की इकाईयों में ‘मातृभाषा उन्नयन संस्थान(पंजी)’, मातृभाषा.कॉम और संस्मय प्रकाशन, साहित्यकार कोश शामिल है । संस्था द्वारा हस्ताक्षर बदलो अभियान का भी संचालन किया जा रहा है । फिलहाल हिन्दी के प्रति देशभर में चिन्ताएं बढ़ रही है, इसे देखकर लगता है कि हिन्दी पुन: भारत को विश्व गौरव बना सकती है।

आज ऐसी संस्थाओं के माध्यम से ही हिन्दी भाषा को अपना गौरव पुनः प्राप्त हो सकेगा। क्योंकि आज़ादी के बाद जब राजभाषा अधिनियम के आलोक में हिंदी और अंग्रेजी भाषा को एक तुला से सामान तोला गया तब हिंदी के साथ हुए अन्याय की पीड़ा नज़र आने लगी। आज देश को दौलतसिंह कोठारी आयोग द्वारा निर्मित शिक्षा नीति के अंतर्गत त्रिभाषा फार्मूला भी अपनाने की आवश्यकता है। तभी मातृभाषा, हिन्दी व एक विदेशी भाषा या अंग्रेजी की दक्षता हासिल होगी। हिंदी के सम्मान के लिए कार्यरत मातृभाषा उन्नयन संस्थान व हिन्दीग्राम जैसी संस्थाओं की परम आवश्यकता भी है जो हिंदी के वैभव में अभिवृद्धि भी करें व उसे उसका सम्मान दिलवाएं।आज भारत में कही भी यदि हिंदी भाषा का प्रचार नज़र आ रहा है तो उसमें कहीं न कहीं केवल एक नाम मातृभाषा उन्नयन संस्थान सबलता से उभरकर आता है, हजारों हिंदी योद्धाओं की अनथक मेहनत और लाखों हिंदी प्रेमियों का साथ इस संस्थान को न केवल मजबूत कर रहा है बल्कि हिंदी को पूर्णत प्रचारित करते हुए उसे अपने स्वाभिमान राष्ट्रभाषा के शिखर पर स्थापित करने की दिशा में अद्भुत कार्यरत है। इन्ही सब कारणों से आज हिंदी प्रचार का पर्याय मातृभाषा उन्नयन संस्थान बन चुका है।

और ऐसी संस्थाओं के कारण ही आज वैश्विक आलोक में हिंदी के सम्मान की स्थापना सम्भव हो पा रही है जो प्रशंसनीय भी है। संस्थान की सफलता में कई वैश्विक संस्थाओं ने अपनी सहभागिता प्रदान करना शुरू कर दी है, विश्व के कई देशों में स्थिति अन्य हिंदी सेवी संस्थाओं ने मातृभाषा उन्नयन संस्थान से जुड़ना स्वीकार किया और इससे विश्व के सबसे बड़े हिंदी सेवी संस्थान के रूप में मातृभाषा उन्नयन संस्थान उभर कर आया। हिंदी के सम्मान में हर भारतीय मैदान में जुटे और इसी तरह हिन्दी का परचम सम्पूर्ण राष्ट्र में लहराए।

शिखा जैन

राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य- मातृभाषा उन्नयन संस्थान ,इंदौर (मध्यप्रदेश)

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